यह एक सिलसिला है…

‘वर्तमान साहित्य’ के विशेषांकों की एक गौरवशाली परंपरा रही है और उसी श्रृंखला में प्रस्तुत है यह महिला विशेषांक। इस विशेषांक का महत्व इसलिए और बढ़ जाता है कि इसका सम्पादन हमारे समय की महत्वपूर्ण लेखिका ममता कालिया कर रही हैं। ममता जी के लिए यह अवसर उपलब्धि के साथ चुनौती भी होगा। संपादन का प्रस्ताव रखते समय हल्की-फुल्की छेड़छाड़ के रूप में दी गयी सूचना को उन्होंने बहुत गंभीरता से ले लिया। ‘वर्तमान साहित्य’ के विशेषांकों में एक कहानी महाविशेषांक था। कारपोरेट बाज़ार में प्रचलित महा शब्द साहित्य की दुनिया के लिए सर्वथा अपरिचित शब्द था पर रवींद्र कालिया के ख़िलंदडे अंदाज़ और चुलबुली भाषा ने उसे स्वीकृत करा कर ही छोड़ा। 1991 में दो खंडों मे छपे इस विशेषांक में उस समय के 60 से अधिक प्रतिनिधि कथाकार छपे थे। मज़ाक़ में कहा जाता था कि जो इस कहानी विशेषांक में नहीं था वह हिंदी कहानी की मुख्य धारा के बाहर था।
इस विशेषांक की एक कहानी ‘ऐ लड़की’ को अंक की उपलब्धि मनवाने के लिये रवींद्र कालिया ने कितनी रातें (और न जाने कितने दिन!) संधियों और दुरभिसंधियों में बिताये, इसका लेखा-जोखा तैयार करने में पूरा पोथा तैयार हो जायेगा। इस अंक ने बहुत सारे विवाद ज़रूर खड़े किये पर साथ में कई महत्वपूर्ण नये लेखकों को रेखांकित भी किया। कहानी महाविशेषांक में अपने करियर की शुरुआती रचना छपवाने वाले कई लेखक आगे चलकर महत्वपूर्ण कथाकार बने। सो हमने ममता जी से कहा कि यह उनके लिए चुनौती है कि वे सम्पादक रवींद्र कालिया से ख़ुद को बेहतर सम्पादक साबित करें। हँसते हुये उन्होंने चुनौती स्वीकार की और फिर शुरू हुआ एक दिलचस्प सफ़र।
यह ममता जी की साख और उनके प्रति सम्मान का भाव था कि उनके फ़ोन घुमाते ही स्वीकृतियों की झड़ी लग गयी। कुछ ने तो फ़ेसबुकिया सूचनाओं पर ही रचनाएँ रवाना कर दीं। उत्साह का आलम यह था कि कई लेखिकाओं ने तो थोक में रचनाएँ भेज दीं। अब यह काम सम्पादक का था कि वे ख़ज़ाने में से अपने काम का मोती छाँट लें। बहरहाल अब तो मोतियों की लड़ी पाठकों के हाथ में है। फ़ैसला उन्हीं को करना है। मैं दोनों की परिकल्पना से विमोचन तक किसी न किसी रूप से जुड़ा रहा हूँ, इसलिए इतना ही कहूँगा कि इस महाविशेषांक की चर्चा भी अगले कुछ वर्षों तक होगी ही होगी, जिसकी गूँज लंबे समय तक सुनाई देगी।
एक ही फ़र्क़ मुझे नज़र आता है और वह इस संभावना से जुड़ा है कि जहाँ कहानी महाविशेषांक से कई विवाद जुड़े वहाँ अभी तक तो नहीं लगता कि महिला विशेषांक किसी विवाद के घेरे में फँसेगा।
ये पंक्तियाँ लिखते समय मैं एक दुविधा मे फँस गया हूँ। मैं ख़ुद विवाद प्रिय रहा हूँ और निरंतर विवादों में उलझता रहा हूँ। ‘वर्तमान साहित्य’ भी अपने चार दशकों की यात्रा में निरन्तर विवाद उत्पन्न करता रहा है इसलिए मुझे कत्तई अच्छा नहीं लग रहा कि बिना किसी विवाद या विवाद की संभावना के अंक पाठकों के हाथ में पहुंचे। आख़िर विवाद ही तो हमारे समय और जीवन की जड़ता तोड़ते हैं। वे उस चिकने पत्थर की तरह होते हैं जो बच्चों द्वारा उछाले जाने पर तालाब के ठहरे और काई जमे बदबूदार जल पर कई-कई टप्पे लगाते हुए डूबने के पहले उसे झकझोर डालते हैं। अक्सर उनसे रचनात्मक ऊर्जा के नये क्षितिज़ निर्मित होते हैं ।
हमारे बीच बहुत से इतने भले और भोले लोग हैं जो सबको खुश करने की कोशिश में ही पूरा जीवन बिता देते हैं। वे बक़ौल अकबर इलाहाबादी के एक शेर –
हम क्या कहें अहबाब क्या कार-ए-नुमायाँ कर गये,
बी.ए. हुए नौकर हुए पेंशन मिली फिर मर गये।
राजेंद्र यादव अक्सर बालज़ाक से लेकर मंटो तक को उद्धृत करते हुए प्रस्थापना पेश करते थे जिसके अनुसार लेखक होने के लिये हरामी होना ज़रूरी शर्त थी। उनके ‘हरामी’ को किसी जैविक अर्थ में नहीं लिया जाना चाहिए, यह तो स्वभाव की जोखिम उठाने तक की बेफ़िक्री और स्थापित रूढ़िगत मान्यताओं का मज़ाक़ उड़ाने की क्षमता से जुड़ा था। ख़ास तौर से यौनिकता और परिवार नामक संस्था को विद्रूप में बदलने वाले प्रयास उनके प्रिय शग़ल थे। उनके सप्रयास खड़े किये गये विवादों से कई बार कटुता ज़रूर पैदा हुई पर अंत अमूमन हर बार किसी न किसी ऐसे बिंदु पर होता था जिसमें नये विमर्श की संभावना छिपी होती थी।
पाठकों को याद दिलाने की ज़रूरत है कि ‘सरस्वती’ के एक अंक में प्रेमचंद पर उस अंक के सम्पादक ठाकुर श्रीनाथ सिंह ने एक लेख लिखा था जिसका शीर्षक ही था ‘घृणा का प्रचारक प्रेमचंद’।
स्वाभाविक ही था कि वर्णाश्रम के प्रबल समर्थक ठाकुर श्रीनाथ सिंह को ‘मोटेराम शास्त्री’ जैसी कहानी लिखने वाले और उसमें वर्णव्यवस्था की अमानवीय क्रूरता का माखौल उड़ाने वाले प्रेमचंद घृणा के प्रचारक लगे हों। प्रेमचंद ने इसका जवाब दिया ‘जीवन में घृणा का महत्व’ लिखकर जो उनके द्वारा सम्पादित ‘हंस’ में छपा था। इसमें स्पष्ट किया गया था कि क्यों हमें कुछ चीजों से नफ़रत करनी चाहिए। ग़ैरबराबरी, शोषण या हिंसा ऐसी ही प्रवृत्तियाँ हैं जिनसे हमें घृणा होनी ही चाहिए। विवादों की ज़रूरत इसी तरह के विमर्श के लिए खाद की तरह है जिनके ज़रिये हम कुछ चीज़ों से नफ़रत कर सकें या कम से कम उन की शिनाख्त कर सकें जिनसे नफ़रत की जानी चाहिये।
अंक की मौजूदा सामग्री से अगर विवाद नहीं पैदा हो रहा तो कोई बात नहीं, हमें किसी ऐसे विवाद को आगे बढ़ाने से कौन रोक सकता है जो समकालीन भी हो और अंक की सामग्री के क़रीब भी। थोड़ी सी नज़र दौड़ाने पर ही हमें वह मिल भी गया। हमारे सामने एक विवाद था भी जिस पर कुछ फ़ेसबुकिया चर्चा हुई ज़रूर, पर जितना गंभीर विषय था और उस पर जितनी लंबी चर्चा होनी चाहिए थी, वह नहीं हुई। यह विवाद कात्यायनी की एक फ़ेसबुक पोस्ट से उपजा थी। उन्होंने दैहिक प्रेम के आकर्षण में बिंधी और शरीर को ही महिला विमर्श का आदि -अंत समझने वाली कवयित्रियों को संबोधित करते हुए कुछ सवाल दागे और स्वाभाविक था कि हंगामा हो गया। प्रियदर्शन, विमल कुमार और बड़ी संख्या में अन्य रचनाकारों ने उसमें हस्तक्षेप किया। बहरहाल ‘वर्तमान साहित्य’ इस विवाद में बिना कोई पक्ष लिए उम्मीद कर रहा है कि पाठक अगले कुछ अंकों में इस विवाद में भाग लेंगे। एक ही अपेक्षा है कि यदि बहस व्यक्ति केंद्रित न हुई तो उसमें रचनात्मकता बनी रहेगी।

  • विभूति नारायण राय