मेरे लिए निर्मल – उषा प्रियंवदा

nirmal-varma

मेरा स्वभाव निर्मल की तरह अंतर्मुखी नहीं था, मुझे मिलना-जुलना, हँसी-मजाक, पहनना-ओढ़ना भाता था। जबकि निर्मल तपस्वी की तरह, अपने में संपृक्त, अपने एक कमरे में, या सप्रू हाउस की लाइब्रेरी में मौन बैठे लिखते रहते थे, वह अपने लेखन के बारे में पूछने पर केवल मुस्कुराते थे, कभी कुछ बताते नहीं थे। “निर्मल, आजकल क्या लिख रहे हो?” पर एक दूर, रहस्यमयी मुस्कान ही मिलती थी।

निर्मल वर्मा से मेरी प्रथम मुलाकात कहाँ हुई और कब, शायद 1965-66। मैं भीष्म साहनी के घर की साहित्यिक गोष्ठी में, जिसमें कृष्णा सोबती “हम हशमत” नाम से टिप्पणियाँ लिखा करती थीं, पर उनसे निर्मल से परिचय पहले ही उनकी प्रथम कहानी से ही हो चुका था, एकतरफा-जैसा मैं कहीं और लिख चुकी हूं कि मैंने लिखना चाहा था पर अपनी प्रिय कहानी “बादलों के घेरे” पढ़कर मैं सोच चुकी थी कि मैं कभी उस स्तर पर नहीं पहुँच पाऊँगी और ‘सरिता’ में छुटपुट कहानियाँ लिखकर ही संतुष्ट होना पड़ेगा।
परंतु अंदर एक चिंगारी थी, जिससे मैं स्वयं परिचित नहीं थी – औरों ने शायद मेरे अंदर कुछ प्रतिभा देखी होगी – जब मेरी बड़ी बहन के पति, यदुपति सहाय के घर उनके मित्र बच्चन, पंत जी, श्रीपत राय, जो प्रेमचंद के पुत्र और कहानी पत्रिका के संपादक थे, या फिराक की लंबी-लंबी वार्ता कि साहित्य और लेखन की भाषा कैसी होनी चाहिए, की लंबी बैठकें होती थीं, तो मैं उस कमरे के कोने में एक मोढ़े पर बैठी उनकी बातें सुनतीं, और आत्मसात करती रहती थी – और तभी मैंने ‘कहानी’ में एक अनजाने लेखक का नाम देखा, श्रीपति जी से पूछा – यह निर्मल वर्मा कौन है – तो उन्होंने उत्तर दिया – रामकुमार के छोटे भाई – मैं परिचय होने के बाद निर्मल को चिढ़ाती रहती कि ‘बादलों के घेरे से’ निराश होकर जब मैंने तुम्हारी कहानी पढ़ी तो मुझे लगा कि ऐसी कहानी तो मैं भी लिख सकती हूँ।
निर्मल वर्मा और उषा प्रियंवदा का संबंध एक सहज मैत्री का था, परस्पर आदर का था, एक दूसरे को बढ़ावा देने का था, मैंने कभी पुरुष या स्त्रियों की मैत्री को किसी और दृष्टि से न देखा, न उसमें कोई भी किसी और तरह के संबंध की प्रत्याशा की। भीष्म साहनी, कृष्ण बलदेव बैद, गोविंद मिश्र सब मेरे सहज भाव से मित्र थे परंतु प्रवास में रहने के कारण लेखकीय नितांत अकेलापन अनुभव करने के बाद मेरी और निर्मल की मैत्री एक दूसरे ही, गहरे स्तर पर थी – हमें एक दूसरे के अकेलेपन के बारे में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं थी, ठंडे प्रदेश में अकेले होने का अनुभव एक संवेदनशील प्राणी में अलग ही होता है। मेरी पुरानी आदत बन गई थी, एक, अपने को स्त्री और दूसरे को पुरुष समझकर कोई अन्य भाव नहीं आने दिया। मैंने स्त्री होते हुए, साड़ी पहनते हुए भी, यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हुए अपने अन्य प्रोफेसर से भी वही एक सा होने का भाव रखा। न मुझमें किसी हिंसा की भावना थी न परंपरा के प्रति झुकने की। हम दोनों लेखक थे, और हममें वही परस्पर मैत्री का भाव अंत तक बना रहा। निर्मल को या मुझमें एक दूसरे की प्रशंसा से कभी ईर्ष्या नहीं हुई। बल्कि हम दोनों ही एक-दूसरे की ख्याति और उन्नति से प्रसन्न ही होते थे, निर्मल समय-समय पर सलाह देते रहते थे “तुम अपनी बौद्धिकता और प्रतिभा को गंभीरता से क्यों नहीं लेती? विदेश में रहने वाले लेखक को भारतीय परिवेश से उतना नाम या चर्चा नहीं मिलती, या फिर तुम इधर-उधर की फालतू बातों और लोगों पर अपने को इतना खर्च क्यों किया करती हो?”
मैं उनकी सलाह पर मुस्कुरा देती थी, जानती थी कि यह निर्मल का मेरे प्रति निश्छल मैत्री भाव है पर बिना कहे उनकी बात पर ध्यान देती थी, पर मेरा स्वभाव निर्मल की तरह अंतर्मुखी नहीं था, मुझे मिलना-जुलना, हँसी-मजाक, पहनना-ओढ़ना भाता था। जबकि निर्मल तपस्वी की तरह, अपने में संपृक्त, अपने एक कमरे में, या सप्रू हाउस की लाइब्रेरी में मौन बैठे लिखते रहते थे, वह अपने लेखन के बारे में पूछने पर केवल मुस्कुराते थे, कभी कुछ बताते नहीं थे। “निर्मल, आजकल क्या लिख रहे हो?” पर एक दूर, रहस्यमयी मुस्कान ही मिलती थी। निर्मल को बौद्धिक चर्चा में आनंद आता था और मेरे पति में उन्हें वही मिला, अमेरिका में वह दोनों घंटों, बीच में कोन्याक की बोतल रखते हुए योरोपीय साहित्य पर वार्तालाप करते रहते थे, मेरे पति फ्रेंच और लैटिन के विद्वान थे, उन्हें जर्मन और अन्य योरोपीय साहित्य का प्रचुर ज्ञान था, इसलिए मेरे न होने पर दोनों अपने वार्तालाप में मगन रहते थे। मुझे यह मैत्री का संबंध अच्छा लगता था। जब मेरे अहिंदी-भाषी पति ने कहा – ‘निर्मल वर्मा का कहना है कि तुम अच्छी लेखिका हो – तो मुझे प्रसन्नता हुई’। एक, निर्मल वर्मा मुंह पर प्रशंसा नहीं करते थे, दूसरे मेरे पति को मेरे लेखन में इतनी रुचि थी कि वह मेरा स्तर जानकर प्रसन्न हुए।
उन दिनों साहित्यिक गोष्ठियाँ होती रहती थीं। अक्सर भीष्म साहनी के घर या शीला संधू जो राजकमल की प्रकाशक थीं या फिर श्रीकांत वर्मा के घर, उन गोष्ठियों के बाद निर्मल को अपने कमरे में हमें आमंत्रित करके कॉफी बनाकर पिलाना पसंद था और अक्सर हम सब देर रात तक साहित्य या राजनीति पर चर्चा करते रहते थे, कभी उन्हें घर पहुँचने में रात के डेढ़ से दो बज जाते थे तो गगन भी कुछ सख्ती से – “अब तक कहाँ थे?’’ “निर्मल के घर सब कॉफी पीने गए थे। तो वह चुप हो जाती थी।” वह निर्मल के लेखन और सहज व्यक्तित्व का आदर करती थीं, सुबह चाय पीते वक्त- वहाँ कौन-कौन था पूछती थीं। कई लोग। “राजेंद्र थे’’, नहीं, श्रीकांत? हाँ, गीता, हाँ तो वह संतुष्ट हो जाती थी।
निर्मल की बीमारी या मृत्यु की खबर मुझे बहुत दिन बाद मिली, जबकि मेरे ईमेल पर उनकी स्मृति में एक भाषण का समाचार मिला। वैसे भी उनके गगन गिल से विवाह करने और दिल्ली से दूर चले जाने पर या मेरे भारत में कम आने पर समाचार की कड़ी टूटती सी गई थी। उनका जाना हिंदी साहित्य के लिए बड़ी क्षति थी और मेरे लिए एक प्रिय मित्र की अनुपस्थिति परंतु अभी भी नया उपन्यास प्रकाशित होने के बाद मैं हमेशा सोचती हूँ कि इस पर निर्मल की क्या प्रतिक्रिया होती? उनकी सुगढ़, सुंदर लिखाई में आए पत्र की कुछ ही पंक्तियाँ मुझे उल्लसित कर जाती थीं – “निर्मल को मेरा उपन्यास अच्छा लगा है- फिर पति से कहते हुए मैं उमग जाती थी।”