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मेरे लिए निर्मल – उषा प्रियंवदा

हमें एक दूसरे के अकेलेपन के बारे में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं थी, ठंडे प्रदेश में अकेले होने का अनुभव एक संवेदनशील प्राणी में अलग ही होता है। मेरी पुरानी आदत बन गई थी, एक, अपने को स्त्री और दूसरे को पुरुष समझकर कोई अन्य भाव नहीं आने दिया। मैंने स्त्री होते हुए, साड़ी पहनते हुए भी, यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हुए अपने अन्य प्रोफेसर से भी वही एक सा होने का भाव रखा।

यह एक सिलसिला है…

यह ममता जी की साख और उनके प्रति सम्मान का भाव था कि उनके फ़ोन घुमाते ही स्वीकृतियों की झड़ी लग गयी। कुछ ने तो फ़ेसबुकिया सूचनाओं पर ही रचनाएँ रवाना कर दीं। उत्साह का आलम यह था कि कई लेखिकाओं ने तो थोक में रचनाएँ भेज दीं। अब यह काम सम्पादक का था कि वे ख़ज़ाने में से अपने काम का मोती छाँट लें।

हम देखेंगे हम चले थे जानिब-ए-मंज़िल…

आज से चालीस वर्ष पूर्व 1983 में प्रसिद्ध कथाकार श्री विभूति नारायण राय ने इलाहाबाद से जब इसका प्रकाशन आरम्भ किया तो उस दौर में ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’, ‘दिनमान’ और ‘सारिका’ सरीखी पत्रिकाएँ बन्द होने के कगार पर थीं। पाठकों के बीच इस अभाव की पूर्ति का काम इसी पत्रिका ने किया था।

वर्तमान साहित्य: संयुक्त विशेषांक कवर

महाविशेषांक को अतिथि सम्पादक ममताजी ने पत्रिका के उप सम्पादक डा.शशि कुमार सिंह और सह सम्पादक डा.अलका प्रकाश के साथ पिछले तीन महीनों के अथक श्रम और मनोयोग से यह रूप दिया है। (- संपादक)